शनिवार, 20 नवंबर 2010

भगवान शंकर ने जगत कल्याण का पर्याय है अर्धनारीश्वर अवतार लि

भगवान शिव आदि व अनंत है। इनकी पूजा करने से तीनों लोकों का सुख प्राप्त होता है। भगवान शंकर ने जगत कल्याण के लिए कई अवतार लिए।

भगवान शिव के इन अवतारों में कई संदेश भी छिपे हैं । उन्हीं में से कुछ अवतारों की कथा तथा उनमें छुपे संदेश की जानकारी संक्षिप्त में नीचे दी जा रही है-



स्त्री-पुरुष की समानता का पर्याय है अर्धनारीश्वर
भगवान शंकर के अर्धनारीश्वर अवतार में हम देखते हैं कि भगवान शंकर का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का है। यह अवतार महिला व पुरुष दोनों की समानता का संदेश देता है। समाज, परिवार व सृष्टि के संचालन में पुरुष की भूमिका जितनी महत्वपूर्ण है उतना ही स्त्री की भी है।

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स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के बिना इनका जीवन निरर्थक है। अर्धनारीश्वर लेकर भगवान ने यह संदेश दिया है कि समाज तथा परिवार में महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही आदर व प्रतिष्ठा मिले। उनके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव न किया जाए।
क्यों हुआ अर्धनारीश्वर अवतार


शिवपुराण के अनुसार सृष्टि में प्रजा की वृद्धि न होने पर ब्रह्मा चिंतित हो उठे। तभी आकाशवाणी हुई- ब्रह्मन! मैथुनी सृष्टि उत्पन्न कीजिए। यह सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने का संकल्प किया। परंतु तब तक शिव से नारियों का कुल उत्पन्न नहीं हुआ था। तब ब्रह्मा ने शक्ति के साथ शिव को संतुष्ट करने के लिए तपस्या की ।

ब्रह्मा की तपस्या से परमात्मा शिव संतुष्ट हो अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर उनके समीप गए। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- पितामह! मैं आपकी अभिलाषा जानता हूं ।

जगत कल्याण के लिए मैं आपके मनोरथ पूर्ण कर रहा हूं। ऐसा कहकर शिव ने अपने शरीर में स्थित देवी शिवा/शक्ति के अंश को पृथक कर दिया। ब्रह्मा ने उस परम शक्ति की स्तुति की और कहा- माता। मैं मैथुनी सृष्टि उत्पन्न कर अपनी प्रजा की वृद्धि करना चाहता हूं अत: आप मुझे नारीकुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें।

ब्रह्माजी की प्रार्थना स्वीकार कर देवी शिवा ने उन्हें स्त्री-सर्ग-शक्ति प्रदान की और अपनी भृकुटि के मध्य से अपने ही समान कांति वाली एक शक्ति की सृष्टिï की जिसने दक्ष के घर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया। शक्ति का यह अवतार आंशिक कहा गया है। शक्ति पुन: शिव के शरीर में प्रविष्ट हो गई। उसी समय से मैथुनी सृष्टि का प्रारंभ हुआ। तभी से बराबर प्रजा की वृद्धि होने लगी।

कांवड़ यात्रा

सावन भगवान शिव की भक्ति का महीना है। इस महीने में विभिन्न साधनों से भगवान शंकर को प्रसन्न किया जाता है। सावन के महीने में भगवान शंकर के जलाभिषेक का भी विशेष महत्व है। जलाभिषेक से शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।
कांवड़ यात्रा का एक महत्व यह भी है कि यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है।
लंबी कांवड़ यात्रा से हमारे मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जागता है। हम अपनी क्षमताओं को पहचान सकते हैं, अपनी शक्ति का अनुमान भी लगा सकते हैं। एक तरह से कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही यह हमारे व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है। यही वजह है कि श्रावण में लाखों श्रद्धालु कांवड़ में पवित्र जल लेकर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान जाकर शिवलिंगों का जलाभिषेक करते हैं।

ऐसा माना जाता है कि जब सारे देवता श्रावण मास में शयन करते हैं तो भोलेनाथ का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य जागृत हो जाता है। कांवड़ का जल केवल 12 ज्योर्तिलिंगों और स्वयंभू शिवलिंगों ( जो स्वयं प्रकट हुए हैं) पर ही चढ़ाया जाता है। प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों और शिवलिंगों पर कांवड़ का जल नहीं चढ़ाया जाता।

सावन मास भगवान शिव की भक्ति को समर्पित है।

हिन्दू धर्म के अनुसार श्रावण मास त्रिदेव और पंच देवों में प्रधान भगवान शिव की भक्ति को समर्पित है। पौराणिक मान्यता है कि देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की।
भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए। मान्यता है कि भगवान शंकर ने विष पान से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया। यह भी धार्मिक मान्यता है कि इस विष के प्रभाव को शांत करने के लिए भगवान शंकर ने गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया।
इसी धारणा को आगे बढ़ाते हुए भगवान शंकराचार्य ने ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम पर गंगा जल चढ़ाकर जगत को शिव के जलाभिषेक का महत्व बताया। शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान श्रावण मास में ही किया था। धार्मिक दृष्टि से यही कारण है कि इस मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। यह काल शिव भक्ति का पुण्य काल माना जाता है। शिव भक्तों द्वारा पूरी श्रद्धा, भक्ति और आस्था के साथ भगवान शिव की पूजा-अर्चना, अभिषेक, जलाभिषेक, बिल्वपत्र सहित अनेक प्रकार से की जाती है। इस काल में शिव की उपासना भौतिक सुखों को देने वाली होती है। व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का प्रतीक है कि मानव को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए।
खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं और व्यावहारिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सदुपयोग करे। शंकर की जटाओं में विराजित गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का। गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी स्थान पर रखा है जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।

क्यों श्रेष्ठ है सावन

हिन्दू धर्म में माना जाता है कि भगवान शिव इस पूरे जगत का संचालन करते हैं और संहार भी। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना का शेष मासों की तुलना में अधिक महत्व है।
शास्त्रों में श्रावण मास के महत्व को बताने वाली अनेक धार्मिक प्रसंग हैं। इनमें अमरनाथ तीर्थ में भगवान शंकर द्वारा माता पार्वती को सुनाई अमरत्व की कहानी का सबसे अधिक धार्मिक महत्व है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने अमरत्व का रहस्य बताने के लिए कहानी माता पार्वती को एकांत में सुनाई। कहानी सुनने के दौरान माता पार्वती को नींद आ गई।
किंतु उस कहानी को उस स्थान पर मौजूद शुक यानि तोते ने सुन लिया। कहानी सुनकर शुक अमर हो गया। इसी शुक ने भगवान शंकर के कोप से बचकर बाद में शुकदेव जी के रुप में जन्म लिया। इसके बाद नैमिषारण्य क्षेत्र में शुकदेव जी ने यह अमर कथा भक्तों को सुनाई।
मान्यता है कि यही पर भगवान शंकर ने ब्रह्मा और विष्णु के सामने शाप दिया कि आने वाले युग में अमर कथा को सुनने वाले अमर नहीं होंगे। किंतु यह कथा सुनकर पूर्व जन्म और इस जन्म में किए पाप और दोषों से मुक्त हो जाएंगे। उन भक्तों को शिवलोक मिलेगा। खास तौर पर सावन के माह में इस अमर कथा का पाठ करने या सुनने वाला जनम-मरण के बंधन से छूट जाएगा। दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी उम्र के लिए शिव की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास में कठिन तप किया। जिसके प्रभाव से मृत्यु के देवता यमराज भी पराजित हो गए।
यही कारण है कि श्रावण मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। इस मास में शंकर जी की यथोपचार पूजा, अमर कथा का पाठ करना या सुनने पर लौकिक कष्टों जिनमें पारिवारिक कलह, अशांति, आर्थिक हानि और कालसर्प योग से आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार श्रावण मास में शिव पूजा से ग्रह बाधाओं और परेशानियों का अंत होता है।

शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठना चाहिये।

शिवलिंग पूजा मन से कलह को मिटाकर जीवन में हर सुख और खुशियाँ देने वाली मानी गई है। हर देव पूजा के समान शिवलिंग पूजा में भी श्रद्धा और आस्था महत्व रखती है। किंतु इसके साथ शास्त्रोंक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक है शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है।


- जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती।
- शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे। क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरुपा देवी उमा का स्थान है।

- पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देती।


- इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणामुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है।



शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठक के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड़् लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।

शिव खोड़ी की गुफा शिव ने बनाई

सनातन धर्म में भगवान शिव को सभी देवी-देवताओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए उनको महादेव भी कहा जाता है। महादेव थोड़ी-सी भक्ति पर ही भक्त पर कृपा कर देते हैं। भक्त और भक्ति के महत्व का एहसास शिव भक्ति से ही संभव है। यही कारण है शिव की भक्ति देवता से लेकर दानवों तक ने की। भगवान शिव भी उनकी भक्ति से ऐसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने मुक्त भाव से सभी को मनचाहे वर दिए और कामना पूरी की। इसलिए भगवान शिव को भोलेनाथ भी कहा जाता है।
भगवान शिव के ऐसे ही गुणों के पुराण प्रसंगों से जुड़े अनेक पौराणिक और धार्मिक स्थल हैं। इनमें से ही एक है - शिव खोड़ी की गुफा। यह जम्मू कश्मीर के रनसू क्षेत्र में स्थित है। धार्मिक आस्था है कि इस गुफा में रखी भगवान शिव की पिण्डियों के दर्शन से हर कामना पूरी हो जाती है।
माना जाता है कि यह गुफा स्वयं भगवान शंकर ने बनाई है। पुराण कथा यह है कि भस्मासुर ने तप कर शंकर को प्रसन्न किया। तब भस्मासुर ने शिव से यह वर पाया कि वह जिसके सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाए। वर मिलते ही भस्मासुर, भगवान शंकर पर ही हाथ रखने के लिए आगे बढ़ा। इस पर भगवान शंकर और भस्मासुर में युद्ध हुआ। इसी कारण इस क्षेत्र का नाम रणसु या रनसु हुआ। भस्मासुर ने हार नहीं मानी। तब भगवान शंकर वहां से निकलकर ऊंची पहाड़ी पहुंचे और एक गुफा बनाकर उसमें छुपे। यही शिव खोड़ी की गुफा के नाम से प्रसिद्ध है।


माना जाता है कि भगवान शंकर को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने बहुत ही सुंदर स्त्री का रुप लेकर भस्मासुर को मोहित किया। सुंदरी रुप विष्णु के साथ नृत्य के दौरान भस्मासुर शिव का वर भूल गया और अपने ही सिर पर हाथ रख कर भस्म हो गया।
शिव खोड़ी की गुफा में शिव के साथ पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी की पिण्डियों के दर्शन होते हैं। यह स्वयंभू मानी जाती है। इनके साथ यहां सात ऋषियों, पाण्डवों और राम-सीता की भी पिण्डियां है। पिण्डियों पर गुफा में से जल की बूंदे गिरने से प्राकृतिक अभिषेक होता है। शिव द्वारा बनाई गई यह गुफा बहुत गहरी है, जिसका कोई अंतिम सिरा दिखाई नहीं देता। एक स्थान पर यह दो भागों में बंट जाती है, माना जाता है कि इनमें से एक रास्ता अमरनाथ गुफा में निकलता है।

शिव खोड़ी गुफा पहुंच मार्ग जम्मू और कटरा से है। इन स्थानों से रनसू क्रमश: १४० और ८० किमी दूर है। रनसू से शिवखोड़ी गुफा जाने के लिए लगभग ३-४ किमी की चढ़ाई है। जो सीधे गुफा के पास ही समाप्त होती है।

भारत में मध्यप्रदेश- शिव का जल अभिषेक यहां प्रकृति करती है

भारत में मध्यप्रदेश शैव भक्ति का प्रमुख क्षेत्र पुरातन काल से ही रहा है। यहां पौराणिक और धार्मिक महत्व के अनेक शिव मंदिर हैं। लेकिन इस प्रदेश में कुछ ऐसे शिव मंदिर भी है, जहां पर पहुंचकर भगवान शिव के प्रकृति रुप का अध्यात्मिक अनुभव होता है।
ऐसा ही शिव मंदिर है - मध्यप्रदेश के धार जिले के ग्राम कोद में स्थित कोटेश्वर मंदिर। यह मंदिर पहाडिय़ों के बीच स्थित है। यहां बहुत ही सुंदर प्राकृतिक वातावरण दिखाई देता है। मंदिर के आसपास खासतौर पर सावन माह में हरियाली के साथ कहीं कहीं बहते छोटे झरने मनोरम दृश्य बना देते हैं। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से भरपुर है।

इस शिवलिंग की विशेषता है कि यह पश्चिम मुखी है। कोटेश्वर महादेव का शिवलिंग गुफा में स्थित है। इस शिवलिंग पर गुफा के आस-पास झरनों से आने वाली जल की धाराएं गिरती हैं और समीप ही स्थित कुंड में बह जाती हैं। शिव का ऐसा प्राकृतिक जल अभिषेक देखकर शिवभक्त अभिभूत हो जाते हैं।

इस शिवलिंग के दर्शन से हर मनोरथ पूरे होते हैं। इस मंदिर में महिलाएं कामनाओं को पूरा करने के लिए बेल के पत्तों पर आटे की दीपक जलाकर कुण्ड में छोड़ देती है।
कोटेश्वर महादेव पहुंचने का मुख्य मार्ग मध्यप्रदेश का महू-नीमच मार्ग है। इस मार्ग पर स्थित कानवन फाटे से 12 किमी पश्चिम दिशा में आगे जाने के बाद ग्राम कोद पहुंचा जा सकता है।